
आज मै अपनी बात परमहंस रामकृष्णदेव की दो युक्तियों से शुरू करना चाहूंगा। वे पहली बात कहा करते थे कि नमक का ढेला समुद्र की गहराई मापने गया और वह समुद्र में जाकर समुद्र ही बना गया उसका अलग से कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। एक इकाई के रूप में उसकी कोई पहचान शेष नहीं रही।
दूसरी बात वे कहा करते थे वो स्वयं अपने लिए। तीन मित्र चले जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक दृश्य देखा कि सामने एक विशाल दीवार है और लोग उस पर चढ़ते है कि दीवार के उस पार है क्या। लेकिन जैसे ही वे सब दीवार के ऊपर पहुंचते है बस कोई कुछ बोल ही नहीं पाता सब हंसते हुए दीवार के दूसरी तरफ कूद जाते है। तीनो मित्रों में से दो मित्र ये पता लगाने दीवार पर चढ़े कि ये माजरा क्या है जरा पता तो लगाए लेकिन वे दोनों भी एक के बाद एक हंसते हुए दूसरी तरफ कूद गए। अब तीसरे ने सोचा बिना युक्ति के पता कैसे चले? तो उसने रखी हुई सीढ़ी के आखिरी डंडे में अपना एक पैर फंसा लिया और दूसरे को दीवार के ऊपर रख कर उस पार देख। उसका भी बहुत मन हुआ कि दूसरी ओर कूद जाए लेकिन वह दृढ़ संकल्प लेकर गया था कि सबको वह रहस्य बताना है इसलिए वह वापिस लौट आया।
मैंने ये उद्धरण इसलिए दिया क्योंकि परम की यात्रा पूर्ण होते ही वापिसी होती नहीं है। लेकिन कैलाश से तो सब लौटे। डोल्मा पास की दुरूह चढ़ाई पार कर उसका उतार भी इतना ही दुष्कर। लोक कल्याण की भावना लिए जिन जन्म जात साधकों का इस भू मंडल पर आगमन होता है। वे यदि पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर यदि टिके भी रहते है तो उनका उद्देश्य लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत होता है। महाकैलाश के उच्चतम शिखर को देख कर जब साधक लौटता भी है तो शक्ति स्वरूप गौरी कुंड का आशीष लेकर। क्योंकि परा अंबा का अमोघ आशीष लिए बिना लौटना कैसा। वहीं तो फिर जगत मै साधक का पोषण और रक्षण करती है।
गौरी कुंड के जल का पुरुष स्पर्श नहीं करते। ऐसी मान्यता है सबका ये कर्तव्य है कि स्थान विशेष की मान्यताओं का सम्मान करे। वह कुंड महा कैलाश के ठीक नीचे है। अहंकार ही पुरुष वाच्य है। और मुझे लगता है इस यात्रा के बाद शायद ही किसी का अहंकार ना बढ़ा हो। फिर उस कुंड का स्पर्श कैसे किया जा सकता है। शिवत्व से ओतप्रोत होते ही ये भेद नहीं रहता। जो शिव वहीं शक्ति। वास्तविकता ये है जो कैलाश इतनी ऊंचाई पर लक्षित होता है वहीं कैलाश उस कुंड के तल में भी अवस्थान पाता है। ये कुंड वास्तव में सहस्तार का नाभि केंद्र है। अब यात्रा ढलान की ओर है। यात्री शाम तक झुंझुई पू पहुंच जाते है। और कैलाश परिक्रमा लगभग पूर्ण होने की खुशी हर चेहरे पर लक्षित की जा सकती है। अगले दिन थोड़ा चलकर बस द्वारा दारचेन फिर वही से मानस सरोवर।
मानस के किनारे दो दिवसीय प्रवास। वास्तव में सहस्रार की गहनतम स्थिति के बाद साधक मानस सरोवर में स्नान और प्रवास करता ही है। क्योंकि आत्मोपलव्धि के बाद वहां की दिव्य तरंगों को देह में उतारने के लिए तदनुकूल मानसिक स्थिति में आना पड़ता है। उस महाऊर्जा की विराट तपन को कल्याणकारी और स्निग्ध बनाने के लिए उस सरोवर के किनारे ठहरना ही पड़ेगा जो आज्ञा चक्र के दाएं तरफ ओंकार बिंदु से थोड़ा नीचे किन्तु आज्ञा चक्र से कुछ ऊंचाई पर है। विचार की परिष्कृत अवस्था यही प्रकट होती है और हम उस सरोवर से चुन चुन कर करुणा, दया, प्रेम, लोक कल्याण की भावना, त्याग, तप और देने की भावनाओ को विविध रंगी कणों के रूप में चुनते है। ये कार्य सौरभ मन ही कर सकता है। जो अपने विचार की सुगंध से लोकालय को सुरभित करने के लिए कमर कस चुका है। यही वह स्थान है जहां साधक अपने पांच प्राण को एकीभूत करता है और उनमें सामंजस्य स्थापित करने की कला से परिचित होता है। चन्द्र नाडी से प्रकट द्वितीया का चन्द्र यही से साधक को अपनी अमृत कला से परिचित कराता है और साधक उसे अपने आत्मा की गहराई में स्थापित कर शिव तत्व के शीश पर लक्षित करता है। जिससे वह मृत्यंजय योग की सिद्धि को प्राप्त कर सके। जीवत्व की ठसक यहां भी उद्घोष करती है कि हवन के पूर्ण होते ही कैलाश दर्शन होंगे। लेकिन एक साधक जानता है कि स्थूल प्रक्रिया में विधान का अपना महत्व है। जहां हवन जैसी पवित्र क्रिया मजाक बन कर रह जाए क्या वहां कैलाश के दर्शन संभव है।
यही वह सरोवर है जिससे साधक नित्य नए विविध वर्णी दैवीय विचार प्राप्त करता है क्योंकि इसमें कैलाश की प्रतिछाया सतत पड़ती है। आवश्यकता है तो इस बात की कि हम भौतिक जगत में रहते हुए भी कैलाश को अपने मानस से ओझल ना होने दे। स्थूल जगतिक विचारो की तरंगे हमारे मानस सरोवर को इतना चंचल ना कर दे कि हम कैलाश की प्रतिछया को खो दे। साधक चाहे संप्रज्ञात समाधि को प्राप्त हो या असंप्रज्ञात समाधि को उसे देह स्तर पर लौटना ही होता है क्योंकि जिस उद्देश्य से उसका अवतरण होता है उसको पूर्ण करना भी उसका कर्तव्य है। हम जिस वातावरण जिस स्थिति जिस परिवेश में रहते है उसी को आध्यात्म भावना से पूरित करने के लिए हमें भेजा जाता है। हम सब एक ही तो है दूसरा कुछ भी नहीं। बस स्वयं को समझे और स्वयं में से स्वयं को प्राप्त कर उसका सारभूत तत्व शिवत्व में स्थापित हो जाए यही मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य होना चाहिए।
आप सब अंतर कैलाश की यात्रा करने में सक्षम है बल्कि और भी बहुत अक्षम बस खुद को समझिए और स्थूल कैलाश की यात्रा के बाद शिव की कृपा से शिव मय हो जाइए जिससे महा कैलाश के नाभिकीय केंद्र में स्वयं को स्थापित कर सके। मै गुरु कृपा से जितना भी लिख सका जैसा भी लिखा मेरा बालवत प्रयत्न ही है। किसी को कोई खेद या कष्ट पहुंचा हो या कोई दुख हुआ हो मेरे कारण उसके लिए हृदय से क्षमा प्रार्थी हूं। भगवान भैया के आशीर्वाद से इसे पूर्ण कर सका उनको नमन। गुरूपुत्र गुरु सम।
जय अवधूतेश्वर
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